हम शहर के जाल में फस गए
हम 'बेचैन' होती 'ताल' में फस गए
फस गए हम शहर के अकाल में , (लुप्त होते प्राकृतिक संसाधन )
फस गए धुँए के जाल में
फस गए हम शोर की बाढ़ में
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सुकून नहीं मेरे गाँव जैसा, इस शहर में
इतमेनान (समय) नहीं बैठने का साथ मेें
जल्दी बहुत है सड़क पर,जैसे ऊपर जाने की होड़ हो
मतवाले से हैं जैसे हर तरफ सब
जल नहीं , प्रकाश नहीं, थोड़ा सा भी आकाश नहीं
प्रेम नहीं, भाव नहीं, थोड़ा सा भी चाव नहीं
रिश्ते हैं बेजनों से, कल कारखानों से ,
आते जाते सब रहे , उड़ती फुहाार की तरह
खबर नहीं बिखरते हुुुए खेेत की (भोजन और किसान की)
बहती हुई गरम रेत की (आता हुआ सूखा)
मिलते हुए संकेतों की , ओझल होती तमाम ज्योति की (लुप्त होती तमाम प्रजाती)
बस भीड़ है , भीड़ है , भीड़ है
तमाम अस्पतालों में, होटल और मालों में
चोरी है, चकारी है झूठ है, मक्कारी है
नशा है, द्ववेेेश है, लूट है , कैसी ये.छूट है
हम शहर के जाल में फस गए
कहाँ इस दलदल में बस गये !
- अरविन्द